BURNING JHARIA – जहा मौत के साये मे हर पाल जी रहे है लोग , आग के दरिया पर शहर: यहां 109 सालों से धधक रही ज्वाला

धनबाद: भारत के पूर्व में बसा छोटा मगर बेहद खूबसूरत राज्य है झारखंड. प्रकृति ने इसे बहुत ही फुर्सत से नवाजा है. यहां की हरियाली, पहाड़, नदियां, झरने किसी का भी मन मोह सकते हैं. लेकिन झारखंड सिर्फ अपनी प्राकृतिक खूबसूरती के लिए ही मशहूर नहीं है. बल्कि यहां है देश की कोयला राजधानी धनबाद.

पिछले 109 सालों से लगी है आग
पूरे देश को रोशन करने में धनबाद का बड़ा योगदान है. लेकिन इसी कोयले की वजह से यहां के सैकड़ों लोग नर्क की जिंदगी जीने को मजबूर हैं. धनबाद का झरिया शहर पिछले 109 सालों से आग के दरिया के बीच में है. भारत का यह एकमात्र शहर है जो पिछले 109 सालों से जल रहा है. हैरानी की बात यह है कि इसके बाद भी यहां के लोग अपना घर, जमीन और कारोबार छोड़कर जाना नहीं चाहते हैं.

झारखंड में देश का 19 प्रतिशत कोयला
झारखंड में इतना कोयला है कि ये अगले 70 सालों तक देश की जरूरतों को पूरा कर सकता है. झारखंड में देश का 19 प्रतिशत कोयला है. जियोलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया के मुताबिक झारखंड में बेहतरीन क्वालिटी के करीब 86 हजार मिलियन टन कोयले का रिजर्व भंडार है. देखने और सुनने में यह काफी अच्छा लगता है कि झारखंड में ऊर्जा का अथाह भंडार है. लेकिन यह सब कुछ इतना सुखद नहीं है. इस तस्वीर के पीछे कोयले से भी अधिक स्याह सच्चाई है.
जमीन से निकलती हैं आग की लपटें
देश की कोयला राजधानी धनबाद में दूर तक कोयला की खदानें नजर आती हैं. इन खदानों से निकलने वाले ट्रक, धुल का गुबार और अपनी जिंदगी की दौड़ भाग में व्यस्त लोग. देखने में ये काफी सामान्य नजर आता है. लेकिन ये इतना सामान्य नहीं है. धनबाद शहर से कुछ ही किलोमीटर दूर झरिया इस कोयले के कारण नर्क बन गया है. यहां जमीन के अंदर लगी आग की लपटें बाहर निकलती रहती हैं.
धरती पर नर्क की तरह दिखता है झरिया
झरिया में जहां आल लगी है उसके चारों तरफ धुएं का गुबार और जहरीली हवा है. इस आग के कारण जमीन धीरे धीरे धंस रही है. यही नहीं घरों में भी दरारें पड़ रही हैं. आए दिन जमीन के नीचे लगी आग से गोफ बन जाता है जिससे कई इंसान मौत के मुंह में समा रहे हैं. आप कह सकते हैं कि धरती पर अगर कहीं नर्क है तो वह इससे ज्यादा अलग नहीं होगा.
जमीन होती जा रही है खोखली
जमीन के अंदर कई वर्षों से धधक रही आग अब यहां के लोगों के लिए नियति बन गई है. अंदर ही अंदर आग जमीन को खोखली करती जा रही है और जमीन के ऊपर बसे लोगों की जिंदगी तबाह होती जा रही है. भूधंसान क्षेत्र में रह रहे लोगों के लिए मुसीबत नहीं बल्कि काल है, जो कभी भी इन्हें अपने अंदर समा सकता है. यहां हर वक्त मौत मुंह बाए खड़ी रहती है.
कौन कब कहां जमीन में समा जाए यह कहना मुश्किल
झरिया में कब कौन कहां जमीन के अंदर समा जाए यह कहना मुश्किल है. फिर भी लोग जान जोखिम में डालकर यहां रहने को मजबूर हैं. ऐसा नहीं है कि इनके पुनर्वास के लिए योजना नहीं बनी. झरिया मास्टर प्लान एशिया की सबसे बड़ी पुनर्वास परियोजना है, लेकिन पुनर्वास का काम अब भी अधूरा है. लोग नई जगह जाने के लिए तैयार नहीं है.
1916 में पहली पहली बार आग का पता चला
कोयलांचल नागरिक एकता मंच के अध्यक्ष राजकुमार अग्रवाल कहते हैं कि झरिया कोलफील्ड में 1916 में इंजीनियर जे मुवे को आग की जानकारी मिली थी. तब भौरा इलाके में लगी थी. उसके बाद कोशिश की गई कि कीमती कोयले और लोगों को सुरक्षित किया जाए. झरिया में लोगों को बचाने के लिए 1933, 1962 और उसके बाद लगातार कई चरणों में आंदोलन भी हुए.